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                    स्वास्थ्य  यानि  शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक  संतुलन  । आज  के  आधुनिकता  व्  भोतिकता  के  युग  में  हम प्राकृतिक ता से  दूर  होते  जा  रहे है  और शारीरिक, मानसिक  व् भावनात्मक  बिमारियों  से  ग्रस्त  चिकत्सकों  व् वैधों की  कमाई  का  साधन  मात्र होते  जा  रहें  है । लेकिन  चिकित्सा  की विभिन्न  प्रणालियाँ  आधुनिक बीमारियों  को रोकने  में  असमर्थ हैं ।  मानव  मात्र यंत्र नहीं है  अपितु एक  विचारशील प्राणी है । उसका स्वास्थ्य  उसके लिए सर्वोपरि  है । उसे  एक  सम  अनुपात वाला शरीर और संकल्प शक्ति  वाला मन चाहिए । मानव अपनी व्यक्तिगत  आवश्यकताओं के मध्य वह अब एक  समावेश और समायोजन करना  चाहता है ,  उसकी  यह इच्छा  पूर्ति  योग  कर सकता है ।

              योग  की  चैतन्य  प्रक्रिया  द्वारा वह  तनावमुक्त शरीर,  संतुलित शवास, सृजनात्मक मानसिकता, प्रखर बुद्धि  और अध्यात्मिकता की  दिव्यता  प्राप्त कर सकता है ।  सुख-सुविधाओं के मध्य  भी  वह विवेकपूर्ण  वैराग्य का  अभ्यास कर  सकता है व्  साधारण  व्यक्ति  से साधक  बनकर पूर्ण स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकता है  ।

            योग के  आठ  अंग   साधक - मनुष्यों    को   ही  नही  समाज  को भी स्वस्थ्य बनाते है ।  योग साधकों को योग  के आठ अंगो का पालन करना चाहिए तभी  पूर्ण स्वास्थ्य यानि  शारीरिक, बोद्धिक,  मानसिक व्  भावनात्मक  अनुकूलता को पाते है ।

        यम, नियम, आसन,  प्राणायाम और  प्रत्याहार  योग  के  बहिरंग  साधन  कहलाते है ।  धारणा, ध्यान  व् समाधि  ये  अन्तरंग  साधन  कहलाते है । किसी एक  अंग  का पालन करना  पर्याप्त नही है पूर्ण  स्वास्थ्य,  निरोगता व्  आध्यात्म के लिए  आठों  अंगों  का पालन  आवश्यक  है ।

         प्रतिदिन  प्रात:  शरीर  को समय  दें  तथा  एक  नियोजित  क्रमबद्ध तरीके से  योग  क्रियाओं को  करे ।

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हम स्वस्थ रह सकते है:-

आहार व् उपवास अपने आप में पूर्ण चिकित्सा पद्धति है । एक दिन या कुछ दिनों तक भोजन का परिहार करने से पाचन तंत्र को विश्राम मिलता है । शरीर में जमे हुए विषों को शोधन होता है । शोधन के लिए आहार प्रक्रिया में बदलाव व नियमन कर सकते है :

1- एक या दो बार से अधिक नहीं खाना ।

2- प्रात: काल के नास्ते में अन्न या गरिष्ठ वस्तुयों का प्रयोग न करना ।

3- प्रतिदिन गरिष्ठ भोजन न करना ।

स्वस्थ रहने के लिए उदर शुद्धि अनिवार्य है । इसमें आहार के साथ-साथ योग व् प्राणायाम पूर्णतया सहायक है । आहार संतुलन व् योग प्राणायाम से हम पूरी तरह स्वस्थ रह सकते है ।
 
 
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हमें कितना और कब-कब खाना चाहिये ?

एक सामान्य व्यक्ति को हर रोज लगभग 2000 कैलोरी का भोजन करना चाहिये । जिस व्यक्ति का श्रम अधिक हो वह 10-20 प्रतिशत अधिक अर्थात 2200-2400 कैलोरी खा सकता है । जिसका शारीरिक श्रम कम हो उन्हें 10-20 प्रतिशत अर्थात 1600-1800 कैलोरी का भोजन पर्याप्त है । पर कैलोरी का माप रखना आसान नहीं होता ।

अत: दूसरा नियम यह अपनाया जा सकता है की जितनी भूख हो उससे कम खाना चाहिये, या दुसरे शब्दों में खाते-खाते भारी लगने लगे उसके पहले खाना छोड़ देना चाहियेl
 
 
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कच्ची सब्जियां:
 
-गाजर - ए, बी, सी, लोहा, चुना, व् चीनी आदि पदार्थो व् विटामिनों से भरपूर व् शारीरिक विकास के लिए अत्यंत उपयोगी । गाजर का रस में एक विशेष प्रकार का शक्तिप्रद तत्व है, जो शरीर में स्वच्छ खून उत्पन्न करने में अद्वितीय है ।आँखों की ज्योति तीव्र होती है ।

मुली : भोजन को शीघ्र पचा देती है, किन्तु स्वयं देर से पचती है । मुली को पचाने के लिए उसकी पतियाँ अवश्य खानी चाहिए । मुली बवासीर, पीलिया, गुर्दे और मूत्राशय की पथरी, तिल्ली, दमा, रज और पेशाब की रूकावट में अत्यंत लाभदायक है । 
ॐ नम: शिवाय ।
"योग करे निरोग" योग रोज अवश्य करें। 
 
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शलगम: 

शलगम में गाजर तथा मुली दोनों के गुण भरे हैं । इसमें कैरोटिन, विटामिन-ए-बी तथा सी पर्याप्त मात्रा में होता है । शलगम में प्राकर्तिक इन्सुलिन पाया जाता है ।इसलिये इसका रस मधुमेह रोगियों के लिए उत्तम औषधि है ।
शलगम के साथ इसका पत्ता भी उपयोगी सब्जी है । रोग निवारण की द्रष्टि से इसके पत्तों का कोई मुकाबला नहीं । इनमे बहुमूल्य पोषण व् संरक्षक तत्व भरे हुए है ।

शलगम के पत्ते, तथा कंद का रस, सलाद व् सब्जी खाने से मधुमेह, द्रष्टि दोष, अन्धता, कब्ज, दमा, खांसी, रक्तचाप, ह्रदय रोग, शारीरिक, स्नायविक एवं मानसिक दौर्बल्य, पथरी, मुत्रावरोध, गुर्दे के विभिन्न रोग ( सिर्फ कंद का रस दें, पत्ते की सब्जी व् रस नहीं) वात्तरक्त, आमवात, दंतशुल व् मसूढ़े से खून का आना, सायटिका, पीलिया एवं यकृत के रोग ठीक होते है ।

शलगम के नाजुक पत्तों के रस का उपयोग सभी रोगों में किया जा सकता है । यह पाचन क्रिया को बढाता है 
 
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भिन्डी: इसकी सब्जी, रस व् सूप के प्रयोग से प्रमेह, वीर्य स्खलन, नपुंसकता, जलन, आंतरिक प्रदाह, यकृत प्रदाह, पीलिया, अतिसार, मूत्रकृच्छ, रक्त-मूत्र, सुजाकजन्य मुत्रेंद्रिय वेदना, जीर्ण श्वास नली प्रदाह, यक्ष्मा, पथरी तथा अरुचि ठीक होती है । काम उर्जा तथा वीर्य बढ़ाने के लिए इसका रस व् सूप लें । 

रस बनाने के लिए सौ ग्राम भिन्डी में ढाई सौ मि. ली. पानी डाले मसलकर छाने व् पी जाये । सूप बनाने के लिए सौ ग्राम भिन्डी में पाँच सौ मि. ली. पानी डालकर उबाले । उबलने के बाद हींग, जीरा आदि से छोंक लगाकर छानकर पीयें । रस तथा सूप में शहद भी मिलाकर ले सकते है ।

कच्ची भिन्डी या उसकी जड़ को सुखाकर चूर्ण बना ले । प्रतिदिन पाँच ग्राम चूर्ण को पानी के साथ लेने से प्रदर, पित्तज, प्रमेह, हाथ, पैर, आँख एवं सिर में होने वाली जलन ठीक होती है। खांसी व् दमे के दौरे के समय इसके सूप को धीरे- धीरे पीने से शीघ्र आराम मिलता है।
 
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लहसुन के अनोखे गुण -----
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लहसुन में 6 प्रकार के रसों में से 5 रस पाये जाते हैं, केवल अम्ल नामक रस नहीं पाया जाता है।

निम्न रस - मधुर - बीजों में, लवण - नाल के अग्रभाग में, कटु - कन्दों में, तिक्त - पत्तों में, कषाय - नाल में। ""रसोनो बृंहणो वृष्य: स्गिAधोष्ण:
पाचर: सर:।"" अर्थात् लहसुन वृहण (सप्तधातुओं को बढ़ाने वाला, वृष्य - वीर्य को बढ़ाने वाला), रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, म”ाा, शुक्र स्निग्धाकारक, उष्ण प्रकृत्ति वाला, पाचक (भोजन को पचाने वाला) तथा सारक (मल को मलाशय की ओर धकेलने वाला) होता है।

""भग्नसन्धानकृत्"" - टूटी हुई हçड्डयों को जो़डने वाला, कुष्ठ के लिए हितकर, शरीर में बल, वर्ण कारक, मेधा और नेत्र शक्ति वर्धक होता है।
लहसुन सेवन योग्य व्यक्ति के लिए पथ्य - अपथ्य: पथ्य : मद्य, माँस तथा अम्ल रस युक्त भक्ष्य पदार्थ हितकर होते हैं - ""मद्यंमांसं तथाडमल्य्य हितं लसुनसेविनाम्""।

अहितकर : व्यायाम, धूप का सेवन, क्रोध करना, अधिक जल पीना, दूध एवं गु़ड का सेवन निषेध माना गया है।

रासायनिक संगठन : इसके केन्द्रों में एक बादामी रंग का उ़डनशील तेल पाया जाता है, जिसमें प्रधान रूप से Allyl disulphible and Allyl propyldisulphide और अल्प मात्रा में Polysulphides पाये जाते हैं। इन सभी की क्रिया Antibacterial होती है तथा ये एक तीव्र प्रतिजैविक Antibiotics का भी काम करते हैं।

श्वसन संस्थान पर लहसनु के उपयोग:
1. लहसुन के रस की 1 से 2 चम्मच मात्रा दिन में 2-3 बार यक्ष्मा दण्डाणुओं (T.B.) से उत्पन्न सभी विकृत्तियों जैसे - फुफ्फुस विकार, स्वर यन्त्रशोथ में लाभदायक होती है। इससे शोध कम होकर लाभ मिलता है।
2. स्वर यन्त्रशोथ में इसका टिंक्चर 1/2 - 1 ड्राप दिन में 2-3 बार देने पर लाभ होता है।
3. पुराने कफ विकार जैसे - कास, श्वास, स्वरभङग्, (Bronchitis) (Bronchiectasis) एवं श्वासकृच्छता में इसका अवलेह बनाकर उपयोग करने से लाभ होता है।
4. चूंकि लहसुन में जो उ़डनशील तैलीय पदार्थ पाया जाता है, उसका उत्सर्ग त्वचा, फुफ्फुस एवं वृक्क द्वारा होता है, इसी कारण ज्वर में उपयोगी तथा जब इसका उत्सर्ग फुफ्फुसों (श्वास मार्ग) के द्वारा होता है, तो कफ ढ़ीला होता है तथा उसके जीवाणुओं को नाश होकर कफ की दुर्गन्ध दूर हो जाती है।
5.(Gangerene of lungs) तथा खण्डीय (Lobar pneumonia) में इसके टिंक्चर 2-3 बूंद से आरंभ कर धीरे-धीरे बूंदों की मात्रा बढ़ाकर 20 तक ले जाने से लाभ होता है।
6. खण्डीय फुफ्फुस पाक में इसके टिंक्चर की 30 बूंदें हर 4 घण्टे के उपरान्त जल के साथ देने से 48 घण्टे के अन्दर ही लाभ मालूम होता है तथा 5-6 दिन में ज्वर दूर हो जाता है।
7. बच्चों में कूकर खांसी, इसकी कली के रस की 1 चम्मच में सैंधव नमक डालकर देने से दूर होती है। 8. अधिक दिनों तक लगातार चलने वाली खाँसी में इसकी 3-4 कलियों (छोटे टुक़डों) को अग्नि में भूनकर, नमक लगाकर खाने से में लाभ मिलता है।
9. लहसुन की 5-7 कलियों को तेल में भूनें, जब कलियाँ काली हो जाएं, तब तेल को अग्नि पर से उतार कर जिन बच्चों या वृद्ध लोगों को जिनके Pneumoia (निमोनिया) या छाती में कफ जमा हो गया है, उनमें छाती पर लेप करके ऊपर से सेंक करने पर कफ ढीला होकर खाँसी के द्वारा बाहर निकल जाता है।

तंत्रिका संस्थान के रोगों में उपयोग:
1. (Histeria) रोग में दौरा आने पर जब रोगी बेहोश हो जाए, तब इसके रस की 1-2 बूंद नाक में डालें या सुंघाने से रोगी का संज्ञानाश होकर होश आ जाता है।
2. अपस्मार (मिर्गी) रोग में लहसुन की कलियों के चूर्ण की 1 चम्मच मात्रा को सायँकाल में गर्म पानी में भिगोकर भोजन से पूर्व और पश्चात् उपयोग कराने से लाभ होता है। यही प्रक्रिया दिन में 2 बार करनी चाहिए।
3. लहसुन वात रोग नाशक होता है अत: सभी वात विकारों साईटिका (Sciatica), कटिग्रह एवं मन्याग्रह (Lumber & Cirvical spondalitis) और सभी लकवे के रोगियों में लहसुन की 7-9 कलियाँ एवं वायविडगं 3 ग्राम मात्रा को 1 गिलास दूध में, 1 गिलास पानी छानकर पिलाने से सत्वर लाभ मिलता है।
4. सभी वात विकार, कमर दर्द, गर्दन दर्द, लकवा इत्यादि अवस्थाओं में सरसों या तिल्ली के 50 ग्राम तेल में लहसुन 5 ग्राम, अजवाइन 5 ग्राम, सोंठ 5 ग्राम और लौंग 5-7 नग डालकर तब तक उबालें जब ये सभी काले हो जाएं। इन्हें छानकर तेल को काँच के मर्तबान में भर लें व दर्द वाले स्थान पर मालिश करने से पी़डा दूर होती है।
5. जीर्णआमवात, सन्धिशोथ में इसे पीसकर लेप करने से शोथ और पी़डा का नाश होता है।
6. बच्चों के वात विकारों में ऊपर निर्दिष्ट तेल की मालिश विशेष लाभदायक होती है।

पाचन संस्थान में उपयोग:
1. अजीर्ण की अवस्था और जिन्हें भूख नहीं लगती है, उन्हें लहसुन कल्प का उपयोग करवाया जाता है। आरंभ में 2-3 कलियाँ खिलाएं, फिर प्रतिदिन 2-2 कलियाँ बढ़ाते हुए शरीर के शक्तिबल के अनुसार 15 कलियों तक ले जाएं। फिर पुन: घटाते हुए 2-3 कलियों तक लाकर बंद कर कर दें। इस कल्प का उपयोग करने से भूख खुलकर लगती है। आंतों में (Atonic dyspepsia) में शिथिलता दूर होकर पाचक रसों का ठीक से स्राव होकर आंतों की पुर: सरण गति बढ़ती है और रोगी का भोजन पचने लगता है।
2. आंतों के कृमि (Round Worms) में इसके रस की 20-30 बूंदें दूध के साथ देने से कृमियों की वृद्धि रूक जाती है तथा मल के साथ निकलने लगते हैं।
3. वातगुल्म, पेट के अफारे, (Dwodenal ulcer) में इसे पीसकर, कर घी के साथ खिलाने से लाभ होता है।

ज्वर (Fever) रोग में उपयोग:
1. विषम ज्वर (मलेरिया) में इसे (3-5 कलियों को) पीस कर या शहद में मिलाकर कुछ मात्रा में तेल या घी साथ सुबह खाली पेट देने से प्लीहा एवं यकृत वृद्धि में लाभ मिलता है।
2. आंत्रिक ज्वर/मियादी बुखार/मोतीझरा (Typhoid) तथा तन्द्राभज्वर (Tuphues) में इसके टिंक्चर की 8-10 बूंदे शर्बत के साथ 4-6 घण्टे के अन्तराल पर देने से लाभ मिलता है। यदि रोग की प्रारंभिक अवस्था में दे दिया जाये तो ज्वर बढ़ ही नहीं पाता है।
3. इसके टिंक्चर की 5-7 बूंदें शर्बत के साथ (Intestinal antiseptic) औषध का काम करती है। ह्वदय रोग में: 1. ह्वदय रोग की अचूक दवा है।
2. लहसुन में लिपिड (Lipid) को कम करने की क्षमता या Antilipidic प्रभाव होने के कारण कोलेस्ट्रॉल और ट्राईग्लिसराइडस की मात्रा को कम करता है।
3. लहसुन की 3-4 कलियों का प्रतिदिन सेवन करने से कोलेस्ट्रॉल का बढ़ा हुआ लेवल कम होकर ह्वदयघात (Heartattack) की संभावनाओं को कम करता है।

1. लहसुन की तीक्ष्णता को कम करने के लिए इनकी कलियों को शाम को छाछ या दही के पानी में भिगो लें तथा सुबह सेवन करने से इसकी उग्र गन्ध एवं तीक्ष्णता दोनों नष्ट हो जाती हैं।
2. लहसुन की 5 ग्राम मात्रा तथा अर्जुन छाल 3 ग्राम मात्रा को दूध में उबाल कर (क्षीरपाक बनाकर) लेने से मायोकार्डियल इन्फेक्शन ((M.I.) ) तथा उच्चा कॉलेस्ट्रॉल (Hight Lipid Profile) दोनों से बचा जा सकता है।
3. ह्वदय रोग के कारण उदर में गैस भरना, शरीर में सूजन आने पर, लहसुन की कलियों का नियमित सेवन करने से मूत्र की प्रवृत्ति बढ़कर सूजन दूर होता है तथा वायु निकल कर ह्वदय पर दबाव भी कम होता है।
4. (Diptheria) नामक गले के उग्र विकार में इसकी 1-1 कली को चूसने पर विकृत कला दूर होकर रोग में आराम मिलता है, बच्चों को इसके रस (आधा चम्मच) में शहद या शर्बत के साथ देना चाहिए।
5. पशुओं में होने वाले Anthrax रोग में इसे 10-15 ग्राम मात्रा में आभ्यान्तर प्रयोग तथा गले में लेप के रूप में प्रयोग करते हैं।

Note : लहसुन के कारण होने वाले उपद्रवों में हानिनिवारक औषध के रूप में मातीरा, धनियाँ एवं बादाम के तेल में उपयोग में लाते हैं।
Note : गर्भवती स्त्रयों तथा पित्त प्रकृत्ति वाले पुरूषों को लहसुन का अति सेवन निषेध माना गया है।
 
 
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अजीर्ण-अपच:

हम जो भोजन खाते है अगर उसका पाचन व् मल विसर्जन ठीक से न हो तो हम अजीर्ण यानि अपच के शिकार होते है और दूषित गैस शरीर में फैलती है , रक्त साफ नहीं होता, स्नायु शिथिल हो जाते है और शरीर में कमजोरी महसूस होती है । 

अपचन का मुख्य कारण भूख से अधिक खाना, भोजन में अनियमतिता, बार बार खाना, शारीरिक श्रम न करना व् मानसिक तनाव बने रहना ।

पेट को साफ रखना सब से आवश्यक है , अत: अपच को दूर करने के लिए शाक सब्जियों का सेवन बढ़ा दे व् भूख लगने पर ही भोजन करें व् भोजन को खूब चबा चबाकर खायें । नियमित योग करें व् खुश रहे।
 
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कचरी: इसका गुदा कडवा व् विरेचक होता है । यह सभी सुखी जगहों पर होती है । इसका बीज श्वेत, शीतल, ग्राही तथा पित्तज रोगों में उपयोगी व् इसकी सब्जी अग्निदीपक, शोथहर तथा तीव्र कब्जनाशक होती है । सुखी कचरी का चूर्ण 5 से 10 ग्राम जल के साथ लेने से वात्तज उदरशूल में शीघ्र आराम मिलता है । 

कचरी की सब्जी मलेरिया तथा टायफायड के बाद बढ़े हुए यकृत तथा प्लीहा की सुजन को कम करती है ।
 
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ककोड़ा या खेखसी (Momoridica Cohinchinenensis):

इसे बन करेला भी कहते है क्योकिं स्वाद में करेले जैसा ही है । इसकी जड़ में शलगम की तरह कंद लगते है जो कंकणा आकार के तथा स्वाद में कसैले होते है । इसकी सब्जी, रस, सूप लेने से ज्वर, मधुमेह, कब्ज, मन्दाग्नि, अरुचि, उबकाई, कुष्ठरोग, खांसी, क्षय तथा दमा रोग ठीक होते है ।
 
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छोटी तोरई-Luffa Acutangula:- यह तरोई तथा नेनुआ से श्रेष्ठ कोटि की सब्जी है । यह प्रबल त्रिदोषनाशक है । यह मधुर रसयुक्त, अग्निदीपक, शीतल, कफ तथा वातकारक, पित्त, श्वास, ज्वर, खाँसी तथा कृमिनाशक है । इसका ताजा पत्र-रस आँख में डालने से नेत्र रोग तथा प्लीहा, अर्श तथा कुष्ठ पर पत्तों का लेप करने से बहुत ही लाभ मिलता है ।

अरुचि दूर करने के लिए सब्जी का सूप लें । इसके रस से मूत्र अवरोध तथा पथरी के रोग दूर होते है ।इसे सब्जी, रस, सूप तथा सलाद के रूप में प्रयोग करें । इसके शुष्क फल को रात्रि भर पानी में रखकर सुबह खाली पेट 50 सी.सी. पीने से सभी प्रकार के कुष्ठ रोग में लाभ मिलता है । संग्रहणी तथा पेट की मरोड़ में तोराई के बीज 5 से 10 ग्राम पीस कर खाएं ।


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योग व् स्वास्थ्य :

शारीरिक , मानसिक व् भावनात्मक संतुलन ही स्वास्थ्य जीवन की पहचान है । योग की चैतन्य प्रक्रिया द्वारा मनुष्य तनावमुक्त शरीर, संतुलित श्वास, सृजनात्मक मानसिकता, प्रखर बुद्धि और आध्यात्मिकता की दिव्यता प्राप्त कर सकता है ।

नियमित योग साधना कर हम सदा निरोग जीवन जी सकते है । आसन-प्राणायाम शरीर की समस्त प्रणालियों को स्वस्थ करके हमारे मन तथा विचारों को सकारत्मक कर देते है ।

योग के आठ अंगों का अनुपालन हम मानव से महामानव बना देता है, ये है - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान व् समाधि । योग के आठों अंगो को अपनाये व् प्राक्रतिक फल सब्जियों का इस्तेमाल करें व् स्वस्थ रहें । 
 
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नेनुआ या घिया तोरई : नेनवा दो प्रकार का होता है - कडवा तथा मीठा । 

कडवा नेनुआ की सब्जी त्रिदोषहर व् गुल्म, उदर रोग, वात रोग, कास, कफ, गला, मुख तथा गले में बार-बार कफ आने की स्थिति में कफजन्य शरीर का भारीपन रोगों को दूर करता है । नेनुआ की सब्जी, रस तथा सूप से कोष्ठबद्धता, मोटापा, मधुमेह, सुजाक तथा ज्वर में लाभप्रद । शरीर में अम्ल-क्षार संतुलन को बनाये रखता है । 
 
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छुट्टियों में बच्चें हर दो घंटे बाद कहते है मम्मी भूख
लगी है . बस २ मिनिट .... इसके बाद एक कटोरे में खूब
सारा मुरमुरा और उसमे थोड़ी सेव मिला कर बच्चों को दे
दे. यह पौष्टिक भी है और ज़्यादा खाने पर वजन
भी नहीं बढ़ता. बच्चों के लिए दानों के साथ फ्राई करके
दे . यह बहुत स्वादिष्ट लगेगा .यह यात्रा में भी साथ में रखा जा सकता है.मैगी या चिप्स के विदेशी हमले से बचने
का यह सेहतमंद और स्वादिष्ट उपाय है. धान और चावल दोनों फुलाए जाते हैं। धान को फुलाने पर
जो उत्पाद मिलता है उसे खील कहते हैं और उसे पीसकर
प्राप्त किया गया आटा सत्तू कहलाता है, फिर भी चावल
को फुलाकर प्राप्त किए गए उत्पाद मुड़ी या मुरमुरा बनाने
की क्रिया की अपेक्षा यह छोटी प्रक्रिया है। फुलाने
के लिए उसना चावल ज्यादा पसंद किया जाता है। आग के ऊपर कढ़ाई में गर्म रेत में मुट्ठी से चावल डाला जाता है।


धातु के करछुले से रेत को उलटा पलटा जाता है, और जैसे
ही चावल फूलने और फूटने लगता है, कढ़ाई
की पूरी सामग्री एक छलनी में उलट दी जाती है। फूला हुआ
चावल यानी मुरमुरा छलनी में एकत्रित कर
लिया जाता है और गर्म रेत को फिर से उपयोग में लाने के लिए वापस कढ़ाई में डाल दिया जाता है। नमक मिले
पानी में भिगोया गया चावल पूर्वी भारत में भूनने के लिए
ज्यादा पसंद किया जाता है। व्यावसायिक इकाइयों में
भूनने के लिए बेलनाकार बर्तनों का उपयोग
किया जाता है, जिनके द्वारा चावल गर्म रेत में से
गुजरता है और छनकर वापस बेलनाकार बर्तन में आ जाता है।
चपटा किया हुआ चावल यानी चिउड़ा - धान को नरम
होने तक दो या तीनदिन भिगोकर रखा जाता है और
फिर उसी पानी को कुछ मिनट के लिए उबालकर
ठंड़ाकर लिया जाता है। फिर उन फूले हुए दानों को कुछ
मिनट के लिए उबालकर ठंडा कर लिया जाता है। फिर उन फूले हुए दानों को लोहे या मिट्टी के अवतल पात्रमें
रखकर तब तक तेज आंच पर चढा़ए रखते हैं जब तक
कि दाने फूट न जाएं। इसके बाद दानों को चपटा करने और
छिलका अलग करने के लिए मूसल से कूटा जाता है,जिसे
बाद में फटकर अलग अलग कर दिया जाता है।
 
 
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हल्दी वाला दूध -
 
रात को सोते समय देशी गाय के गर्म दूध में एक चम्मच देशी गाय का घी और चुटकी भर हल्दी डालें . चम्मच से खूब मिलाकर कर खड़े खड़े पियें. 
- इससे त्रिदोष शांत होते है.
- संधिवात यानी अर्थ्राईटिस में बहुत लाभकारी है.
- किसी भी प्रकार के ज्वर की स्थिति में , सर्दी खांसी में लाभकारी है. 
- हल्दी एंटी माइक्रोबियल है इसलिए इसे गर्म दूध के साथ लेने से दमा, ब्रोंकाइटिस, फेफड़ों में कफ और साइनस जैसी समस्याओं में आराम होता है. यह बैक्टीरियल और वायरल संक्रमणों से लड़ने में मदद करती है.
- वजन घटाने में फायदेमंद
गर्म दूध के साथ हल्दी के सेवन से शरीर में जमा चर्बी घटती है. इसमें मौजूद कैल्शियम और मिनिरल्स सेहतमंद तरीके से वजन घटाने में सहायक हैं।
- अच्छी नींद के लिए
हल्दी में अमीनो एसिड है इसलिए दूध के साथ इसके सेवन के बाद नींद गहरी आती है.अनिद्रा की दिक्कत हो तो सोने से आधे घंटे पहले गर्म दूध के साथ हल्दी का सेवन करें.
- दर्द से आराम
हल्दी वाले दूध के सेवन से गठिया से लेकर कान दर्द जैसी कई समस्याओं में आराम मिलता है. इससे शरीर का रक्त संचार बढ़ जाता है जिससे दर्द में तेजी से आराम होता है.
- खून और लिवर की सफाई
आयुर्वेद में हल्दी वाले दूध का इस्तेमाल शोधन क्रिया में किया जाता है। यह खून से टॉक्सिन्स दूर करता है और लिवर को साफ करता है. पेट से जुड़ी समस्याओं में आराम के लिए इसका सेवन फायदेमंद है.
- पीरियड्स में आराम
हल्दी वाले दूध के सेवन से पीरियड्स में पड़ने वाले क्रैंप्स से बचाव होता है और यह मांसपेशियों के दर्द से छुटकारा दिलाता है.
- मजबूत हड्डियां
दूध में कैल्शियम अच्छी मात्रा में होता है और हल्दी में एंटीऑक्सीडेट्स भरपूर होते हैं इसलिए इनका सेवन हड्डियों को मजबूत करता है और शरीर की प्रतिरोधी क्षमता घटाता है.
- इसे पिने से गैसेस निकलती है और अफारा , फुले पेट में तुरंत लाभ मिलता है
 
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